कितना ही अध्यन करले लोग ,
न जान पाए मूल्य ज़िंदगी के हर पल का ;
कितना ही आगे बढ़ले लोग ,
न जान पाए आज़ाद आ रहे कल का ;
कितने ही धनी हो जाये लोग ,
न जान पाए मूल्य होंठ की मुस्कान का;
कितने ही बुद्धीमान बनना चाहे लोग,
कभी न समझ पाए खेल खुदा की शतरंज का ।
कितनी शिददत से,
कितने ही अलफ़ाज़ लिख लेते है लोग;
हमने तो कलम ही उठाई थी ,
और...
सिर्फ "तू" पर अटक गयी।
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न तुम हमें, न हम तुम्हें ;
जानते थे,
गैर थे हम;
और अब...
हर बात कितने रास में भरी है मनो जैसे कायनात की कामना पूरी हुयी हो।
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पूछने लगे की क्या कुछ लिखना है आता ,
हम चुप चुप से रहते है इसीलिए हमारा साथ नहीं भाता ;
अब क्या बताये उनको ,
की लिखा तो बहुत कुछ है बस दिखाया नहीं जाता,
और जब वो सामने हों तो दिल कुछ बोल नहीं पता।
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दूसरों का दिल दुख क्र भी खुश रहते है लोग,
लगता है अब सुकून बाज़ारों में मिलता है।
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न फुसरत में पढ़ना , न शिद्दत से;
मेरे लफ़्ज़ों को, बस पढ़ना तुम इज़्ज़त से।
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मेरी नादानी से वाक़िफ़ थे तुम,
फिर यूँ क्यों खेला मेरे जज़्बों से;
सदक़त मेरी को,
यूँ तोड़ गए तुम लफ़्ज़ों से।
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प्यार से कही ज़ादा मायेने का रिश्ता था भरोसे का ;
मगर तुम्हारी उल्फत के चर्चे सुने हमने गैरों पे।
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कहने का तो हक़ नहीं कोई ,
पर रह न पाएंगे यूँ चुप से ;
जब गुरूर से भरकर टूट जाओ ,
तब गौर करना इसपे फिर से।
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तोड़ कर जोड़ लो चाहे हर चीज़ दुनिआ की ;
सब काबिल-ए -मरम्त है ऐतबार के सिवा।
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न उम्र ही इतनी है की ,
तजुरबा कह सकू;
न नादानी ही इतनी है की ,
बचपन कह सकू।
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उलझी सी बातें लेकर ,
कश्मकश चल रही है ;
वक्त बदल गया,
मगर आज भी उनके जज़्बात वही है।
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मेरा यूँ लिखना उनको अच्छा नहीं लगता ,
सोचकर चाहा था शायद मुझे कोई लाहपरवाही न थी ;
वो ज़हर देते तो सब की निगाहों में आ जाता ,
तो यूँ किया की मुझे वक्त पे दवाई न दी।
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